Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi - हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ हिंदी में

15 Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi (प्रसिद्ध कविताएँ हरिवंश राय बच्चन की)

Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi – नमस्कार, कविता प्रेमियों और साहित्य प्रेमियों! आज, मैं भारत के सबसे प्रसिद्ध कवियों में से एक, हरिवंश राय बच्चन की मंत्रमुग्ध दुनिया में गोता लगाने के लिए अविश्वसनीय रूप से उत्साहित हूं। उनके शब्दों ने भावनाओं का ताना-बाना बुना है, हर कविता में ज्वलंत चित्र चित्रित किए हैं। यदि आपने कभी सूर्यास्त में उदासी की खींचतान या खिलते हुए फूल की खुशी महसूस की है, तो बच्चन की कविता मानव होने के अर्थ के सार को प्रतिध्वनित करती है।

इस ब्लॉग पोस्ट में, हम हिंदी में हरिवंश राय बच्चन की कविताओं के आत्मा-स्पर्शी ब्रह्मांड की खोज करते हुए एक काव्य यात्रा शुरू करने जा रहे हैं। उनकी भाषा की सूक्ष्म बारीकियों से लेकर उनके छंदों में समाहित गहन ज्ञान तक, हम उस जादू को उजागर करेंगे जिसने उनके काम को कालजयी बना दिया है। तो, चाहे आप एक अनुभवी कविता पारखी हों या हिंदी कविता की दुनिया का पता लगाना शुरू कर रहे हों, अपनी सीट बेल्ट बांध लें; आप जीवन भर की काव्यात्मक यात्रा में हैं।

Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi | हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ हिंदी में

1. जो बीत गई – हरिवंश राय बच्चन

जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था।

 

माना वह बेहद प्यारा था

वह डूब गया तो डूब गया।

 

अंबर के आंगन को देखो

कितने इसके तारे टूटे।

 

कितने इसके प्यारे छूटे

जो छूट गए फिर कहाँ मिले।

 

पर बोलो टूटे तारों पर

कब अंबर शोक मनाता है।

 

जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम।

 

थे उस पर नित्य निछावर तुम

वह सूख गया तो सूख गया।

 

मधुबन की छाती को देखो

सूखीं कितनी इसकी कलियाँ।

 

मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ

जो मुरझाईं फिर कहाँ खिलीं।

 

पर बोलो सूखे फूलों पर

कब मधुबन शोर मचाता है।

 

जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था।

 

तुमने तन मन दे डाला था

वह टूट गया तो टूट गया।

 

मदिरालय का आँगन देखो

कितने प्याले हिल जाते हैं।

 

गिर मिट्टी में मिल जाते हैं

जो गिरते हैं कब उठते हैं।

 

पर बोलो टूटे प्यालों पर

कब मदिरालय पछताता है।

 

जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिट्टी के बने हुए।

 

मधु घट फूटा ही करते हैं

लघु जीवन ले कर आए हैं।

 

प्याले टूटा ही करते हैं

फ़िर भी मदिरालय के अन्दर।

 

मधु के घट हैं, मधु प्याले हैं

जो मादकता के मारे हैं।

 

वे मधु लूटा ही करते हैं

वह कच्चा पीने वाला है।

 

जिसकी ममता घट प्यालों पर

जो सच्चे मधु से जला हुआ।

 

कब रोता है चिल्लाता है

जो बीत गई सो बात गई।

2. अग्निपथ – हरिवंश राय बच्चन

वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
माँग मत, माँग मत, माँग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

 

तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

 

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

अग्निपथ - हरिवंश राय बच्चन poem in Hindi
Agnipath – Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi

3. हिम्मत करने वालों की कभी हार नही होती – हरिवंश राय बच्चन

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

 

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।

 

मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।

 

आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

 

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।

 

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।

 

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

 

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।

 

जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।

 

कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

Himmat Karne Walo Ki Kabhi Haar Nahi Hoti – Harivansh Rai Bachchan Poem in Hindi

4. जीवन की आपाधापी में – हरिवंश राय बच्चन

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

 

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा

मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,

हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला

हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में

कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,

आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?

 

फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा

मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,

क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,

जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा, जो किया,

उसी को करने की मजबूरी थी,

जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,

 

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

 

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,

मानस के अन्दर उतनी ही कमजोरी थी,

जितना ज्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,

उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,

जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,

उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,

क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,

यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;

अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ

क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,

वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,

जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,

यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो

जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,

जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।

 

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

 

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,

है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,

कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,

प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,

मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।

 

पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा –

नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,

अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,

मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,

कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,

ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं

केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ

जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए

 

लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के

इस एक और पहलू से होकर निकल चला।

 

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

5. आज मुझसे बोल, बादलआज – हरिवंश राय बच्चन

आज मुझसे बोल, बादल!

 

तम भरा तू, तम भरा मैं,
ग़म भरा तू, ग़म भरा मैं,
आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!

 

आग तुझमें, आग मुझमें,
राग तुझमें, राग मुझमें,
आ मिलें हम आज अपने द्वार उर के खोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!

 

भेद यह मत देख दो पल-
क्षार जल मैं, तू मधुर जल,
व्यर्थ मेरे अश्रु, तेरी बूंद है अनमोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!

6. चल मर्दाने – Harivansh Rai Bachchan Poem in Hindi

चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत ।

 

एक हमारा देश, हमारा

वेश, हमारी कौम, हमारी

मंज़िल, हम किससे भयभीत ।

 

चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत ।

 

हम भारत की अमर जवानी,

सागर की लहरें लासानी,

गंग-जमुन के निर्मल पानी,

हिमगिरि की ऊंची पेशानी

सबके प्रेरक, रक्षक, मीत ।

 

चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत ।

 

जग के पथ पर जो न रुकेगा,

जो न झुकेगा, जो न मुडेगा,

उसका जीवन, उसकी जीत ।

चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत ।

7. आज तुम मेरे लिए हो – हरिवंश राय बच्चन

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,

 

मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,
आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो

 

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
रात मेरी, रात का शृंगार मेरा,

 

आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो

 

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,

 

वह सुधा के स्वाद से जाए छला क्या,
जो तुम्हारे होंठ का मधु-विष पिए हो

 

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मृत सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,

 

पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,
मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो

 

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।

8. आत्‍मपरिचय – हरिवंश राय बच्चन

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ।

 

मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ।

 

मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ।

 

मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ;
जग भ्‍ाव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ।

 

मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,
उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ।

 

कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना।

 

मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता।

 

मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ।

 

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्‍यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना।

 

मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ।

9. प्रतीक्षा – हरिवंश राय बच्चन

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?
मौन रात इस भाँति कि जैसे, को‌ई गत वीणा पर बज कर,

 

अभी-अभी सो‌ई खो‌ई-सी सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशा‌ओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,

 

कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आनेवाले,

 

पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूम-घूम फिर-फिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,

 

मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?
उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,

 

अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपना होश सम्हाले,
तारों की महफ़िल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,

 

मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती

 

रग-रग में चेतनता घुलकर, आँसु के कण-सी झर जाती,
नमक डली-सा गल अपनापन, सागर में घुलमिल-सा जाता,

 

अपनी बाहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?

10. ऐसे मैं मन बहलाता हूँ – हरिवंश राय बच्चन

सोचा करता बैठ अकेले,

गत जीवन के सुख दुख,

दश्नकारी सुधियों से

मैं उड़ के छाले से लाता हूं,

ऐसे मैं मन बहलाता हूं,

 

नहीं खोजने जाता मरहम,

हो कर अपने प्रति अति निर्मम,

उर के घावो को,

आंसू के खारे जल से नहलाता हूं,

ऐसे मैं मन बहलाता हूं,

 

आह निकल मुख से जाती है,

मानव नहीं तो छाती है,

लाज नहीं मुझको,

देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ ,

ऐसे मैं मन बहलाता हूं

 

ऐसे मैं मन बहलाता हूं |

11. साजन आए, सावन आया – Harivansh Rai Bachchan Poem

अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

 

धरती की जलती साँसों ने,
मेरी साँसों में ताप भरा..

 

सरसी की छाती दरकी तो,
कर घाव गई मुझ पर गहरा..

 

है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में,
संबंध कहीं कुछ अनजाना,

 

अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

 

तूफान उठा जब अंबर में,
अंतर किसने झकझोर दिया,

 

मन के सौ बंद कपाटों को,
क्षण भर के अंदर खोल दिया,

 

झोंका जब आया मधुवन में,
प्रिय का संदेश लिए आया-

 

ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया ।

 

अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

 

घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,

 

मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,

 

मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,

 

ओ फिर जीवन की साँसे ले
उसकी म्रियमाण-जली काया।

 

अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,

 

साजन आए, सावन आया।
रोमांच हुआ जब अवनी का,

 

रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू की लकड़ी से,

 

कोई दोनों को संग छुए,
सिंचित-सा कंठ पपीहे का,

 

कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया,

 

यह गीत नया मैंने गाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,

 

साजन आए, सावन आया।

12. दुःखी मन से कुछ भी न कहो – हरिवंश राय बच्चन

व्यर्थ उसे है ज्ञान सिखाना,

व्यर्थ उसे दर्शन समझाना,

उसके दुख से दुखी नहीं हो तो बस दूर रहो।

दुखी मन से कुछ भी न कहो।

 

उसके नयनों का जल खारा,

है गंगा की निर्मल धारा,

पावन कर देगी तन-मन को क्षण भर साथ बहो ।

दुखी मन से कुछ भी न कहो ।

 

देन बड़ी सबसे यह विधि की,

है समता इससे किस निधि की ?

दुखी दुखी को कहो, भूल कर उसे न दीन कहो ?

दुखी मन से कुछ भी न कहो।

13. तुम तूफान समझ पाओगे – हरिवंश राय बच्चन

तुम तूफान समझ पाओगे?
गीले बादल, पीले रजकण,

 

सूखे पत्ते, रूखे तृण घन
लेकर चलता करता हरहर – इसका गान समझ पाओगे?

 

तुम तूफान समझ पाओगे?
गंध-भरा यह मंद पवन था,

 

लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे?

 

तुम तूफान समझ पाओगे?
तोड़-मरोड़ विटप-लतिकाएँ,

 

नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ,
जाता है अज्ञात दिशा को! हटो विहंगम, उड़ जाओगे!

 

तुम तूफान समझ पाओगे?

14. जिंदगी में इतने व्यस्त हो जाइए की उदास होने का वक्त ना मिले – हरिवंश राय बच्चन

जब मुसीबत आए तो समझ जाइए जनाब

जिंदगी हमें कुछ नया सिखाने वाली है,

जिंदगी में इतने व्यस्त हो जाइए ,

की उदास होने का वक्त ना मिले,

 

असफलता एक चुनौती है इसे स्वीकार करो

क्या कमी रह गई है देखो और सुधार करो

जब तक न सफल हो नींद चैन को त्यागो तुम

संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम

यह बिना जय जयकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती|

 

कोई इतना अमीर नहीं कि अपना पुराना वक्त खरीद सके,

और कोई इतना गरीब ही नहीं है कि अपना आने वाला कल बदल न सके,

ढोलत तो भीख मांगने पर भी मिल जाती है

मगर इज्जत कमाने पड़ती है

 

मजबूरियां देर रात तक जगाती हैं और,

जिम्मेदारियां आपको सुबह जल्दी उठा देती हूं,

तस्वीर में साथ होने से ज्यादा जरूरी है

तकलीफ में साथ होना,

कभी फूलों की तरह मत जीना

जिस दिन खेलोगे बिखर जाओगे

जीना है तो पत्थर बनकर जियो

जिस दिन तराशे गए तो खुदा बन जाओगे

 

खुशियां चाहे किसी के साथ बांट लेना,

लेकिन हम अपने गम को

किसी भरोसेमंद इंसान के साथ हैं बांटना |

15. मधुशाला – Harivansh Rai Bachchan Poem

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,

प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,

पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,

सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।

 

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,

एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,

जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,

आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।

 

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,

अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,

मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,

एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।

 

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,

कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,

कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!

पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।

 

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,

भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,

उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,

अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।

 

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,

‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,

अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ –

‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।’। ६।

 

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!

‘दूर अभी है’, पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,

हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,

किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।

 

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,

हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,

ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,

और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।

 

मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,

अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,

बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,

रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।

Madhushala – Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi

 

सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,

सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,

बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,

चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।

 

जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,

वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,

डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,

मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।

 

मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,

अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,

पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,

इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।

 

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,

अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,

बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,

पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।

 

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,

फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,

दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,

पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।

 

जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,

जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,

ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,

जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।

 

बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,

देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,

‘होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले’

ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।

 

धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,

मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,

पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,

कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।

 

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,

हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,

हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,

व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।

 

बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,

रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला’

‘और लिये जा, और पीये जा’, इसी मंत्र का जाप करे’

मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।

 

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,

बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,

लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,

रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।

 

बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,

हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,

राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,

जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।

 

सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,

सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ’ हाला,

धूमधाम औ’ चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,

जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।

 

भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला,

छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,

पटे कहाँ से, मधु औ’ जग की जोड़ी ठीक नहीं,

जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।

 

बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,

पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,

दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,

विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।

 

हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,

वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,

स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,

पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।

 

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,

एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,

दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,

दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।

 

नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,

कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,

जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,

जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।

 

बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,

बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,

बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,

बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।

 

सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,

मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,

मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,

कहा करो ‘जय राम’ न मिलकर, कहा करो ‘जय मधुशाला’।।२९।

जैसे ही हम हिंदी में हरिवंश राय बच्चन की कविताओं की खोज पर पर्दा उठा रहे हैं, मुझे आशा है कि आपने उनके शब्दों की अद्भुत प्रतिभा और गहराई को महसूस किया होगा। उनकी कविता सिर्फ छंदों का संग्रह नहीं है; यह मानव हृदय के भीतर रहने वाली असंख्य भावनाओं को प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है। प्रत्येक पंक्ति में, भावनाओं का एक ब्रह्मांड है जो खोजे जाने की प्रतीक्षा कर रहा है, जीवन का एक दर्शन है जो उजागर होने की प्रतीक्षा कर रहा है।

याद रखें, बच्चन की कविता किसी किताब के पन्नों तक ही सीमित नहीं है; यह एक जीवित, सांस लेने वाली इकाई है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रेरणा देती रहती है और दिलों को छूती रहती है। इसलिए, उनके छंदों को अपने विचारों में रहने दें, उनके रूपकों को अपने सपनों में रंग भरने दें, और संदेह के क्षणों में उनकी बुद्धि को आपका मार्गदर्शन करने दें।

इस काव्यात्मक ओडिसी में मेरे साथ शामिल होने के लिए धन्यवाद। आप साहित्य के विशाल क्षेत्रों का अन्वेषण जारी रखें और हरिवंश राय बच्चन जैसे महान कवियों की कविताओं में सांत्वना, आनंद और गहन समझ पाते रहें। जब तक हम अगली साहित्यिक यात्रा पर दोबारा न मिलें, पढ़ते रहें, सपने देखते रहें, और शब्दों की सुंदरता को अपनाते रहें।

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